Tuesday, 6 December 2016

अंतर्द्वंद्व की आँधी Part 2 of 2

·        अकेले गुमसुम न बैठें।

·        सैर के लिए जाएँ।

·        अपने मित्रों के साथ बातचीत करें।

·        संगीत का आनंद लें।

·        कोई व्यंजन पकाएँ और उसे मज़े से खाएँ।

·        यदि अकेले रहने का मन हो तो प्रकृति के सान्निध्य में रहें।

·        स्वयं को किसी कार्य में व्यस्त रखें।

·        मन का बोझ किसी परम मित्र या सगे-संबंधी से साझा करें।

·        आशावादी लोगों के संपर्क में रहें।

·        निराशा से भरी न तो कोई मूवी न देखें और न ही निराशावादी पुस्तक पढ़ें।

·        अच्छी पोशाक पहनें।

·        शीशे में खुद से बातचीत करें।

·        साहस आपके भीतर है, उसे खुद विश्लेषित करके खोजें।

·        अपनी समस्या / अंतर्द्वद्व पर विजय पाने के लिए खुद से सकारात्मक वार्तालाप करें।

·        जिस स्थान पर समस्या हुई, कोशिश करें कि उस स्थान पर कम से कम जाएँ।

·        नन्हें शिशुओं, बच्चों या पालतू जानवरों के साथ भी खेलें। इससे आपके मन को बड़ी राहत मिलेगी।



 एक नई आशा के साथ फिर मिलेंगे . . .

Sunday, 4 December 2016

अंतर्द्वंद्व की आँधी (Part 1 of 2)

हमारा मनोमस्तिष्क भावों और विचारों का पिटारा है ।प्रत्येक क्षण विचार उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। ये कटु सत्य ही है कि ज्यादातर विचार नकारात्मक ही होते हैं।बहुत कम ही ऐसे विचार होते हैं जो सकारात्मक होते हैं क्योंकि कहा भी जाता है कि बुराई अधिक होती है, अच्छाई बहुत कम ;झूठ का साम्राज्य विशाल होता है जबकि सच का विस्तार कम होता है ।

ऐसे नकारात्मक विचारों की गिरफ़्त से अंतर्द्वद्व की आँधी-तूफान जैसी स्थिति व्याप्त हो जाती है। अंतर्द्वद्व का यह भँवर ऐसा होता है कि व्यक्ति इसमें धँसता ही चला जाता है और अंतत: मनोरोगी तक हो सकता है।

इसके विपरीत यदि व्यक्ति नकारात्मक विचारों की गिरफ़्त में न आकर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाए तो उसकी जीवन-धारा नया मोड़ ले लेती है। ऐसे में वह नई मंज़िलों की ओर बढ़ता हुआ मार्ग की नई चुनौतियों को ठोकर मारता हुआ लक्ष्य़ की ओर संधान करता हुआ आगे ही आगे बढ़ता चला जाता है और अपना जीवन सुखी
बना लेता है।

अंतर्द्वंद्व के समय व्यक्ति क्या करे ? अंतर्द्वंद्व की गिरफ़्त में न आए, उसके लिए क्या करे  ?
 (इन प्रश्नों का उत्तर अगले ब्लॉग में ज़रूर पढ़ें)


एक नई आशा के साथ फिर मिलेंगे . . . 

Friday, 4 November 2016

ध्यान से सुनो प्रकृति क्या कहती है ?

प्रकृति को मानव की सहचरी कहा गया है क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती किंतु आधुनिकता के पाश में बँधा आज का इनसान यह भूल गया है।
हमारे बड़े-बुज़ुर्गों ने प्रकृति के महत्त्व को पहले ही जान लिया था, तभी तो उन्होंने प्रकृति के उपादानों को धार्मिक मान्यताओं व संस्कारों से जोड़ा। बरगद, तुलसी, पीपल आदि वृक्षों, गंगा,यमुना आदि नदियों, गोवर्धन पर्वत की पूजा-अर्चना आदि कार्य धार्मिक अनुष्ठानों के अंतर्गत ही आते हैं। हमारे पूर्वज दूरदर्शी थे, वे जानते थे कि आने वाले समय में मनुष्य के लोभी व स्वार्थी होने के कारण प्रकृति का विनाश होगा, तभी उन्होंने प्रकृति को धर्म से जोड़ा क्योंकि हम भावनात्मक रूप से धर्म से जितना जुड़े हुए हैं उतना किसी और चीज़ से नहीं। प्रकृति के निकट सुकून है, शांति है, ताज़गी है, ऊर्जा है, सकारात्मकता है और सबसे महत्त्वपूर्ण यदि समझने वाला समझ ले तो उसके कण-कण में संदेश है। इस वजह से भी हमारे पूर्वजों ने प्रकृति का सम्मान किया।
दरअसल प्रकृति का हर रूप एक पहेली है जिसे समझने-बूझने के लिए भावनाओं से सराबोर मनोमस्तिष्क चाहिए।

प्रकृति के निकट इसलिए जाएँ क्योंकि :-
`
·       खुली हवा में गहरी साँसें लें और छोड़ें । यदि बगीचे में करें तो और भी बेहतर है । ऐसा करने से आप सूर्य, हवा और वृक्षों की ऊर्जा के दायरे में आकर स्वस्थ व तरोताज़ा महसूस करेंगे। वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है।

·       आप रोज़ एक ही प्रकार का न तो भोजन खा सकते हैं और न ही एक ही प्रकार और रंग के कपड़े पहन सकते हैं क्योंकि यह आपको नीरस लगता है । ठीक उसी प्रकार आपका मनोमस्तिष्क भी प्रकृति के विभिन्न रंगों, उसके विभिन्न रूपों को देखकर आनंद का अनुभव करना चाहता है ।
·       प्रकृति के उपादानों में निहित सकारात्मक शक्ति आपकी नकारात्मकता को समाप्त करने की क्षमता रखती है। जब कभी आप उदास, परेशान या दुखी हों तो प्रकृति के निकट जाकर खुद अनुभव करें और देखें इसका कमाल।


एक नई आशा के साथ फिर मिलेंगे.....


Sunday, 5 June 2016

छोटी-छोटी खुशियों से दामन भरो

इस दुनिया में एक ओर जहाँ ऐसे लोग हैं जो हमेशा अपना दुखड़ा रोते रहते हैं, वहाँ दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो खुद तो खुश रहते ही हैं किंतु अपने आस-पास भी खुशियाँ बिखेरते रहते हैं। वास्तव में खुशियों का माहौल बनाने वाले यही लोग समाज की शान होते हैं और मानवता का विकास भी इन्हीं लोगों से होता है।ऐसे लोग साधारण-सी बात को महत्त्वपूर्ण बनाने की क्षमता रखते हैं, उनका छोटा-सा प्रयास किसी के चेहरे पर खुशी ला देता है, उनका छोटा-सा कृत्य किसी को अनजाने में उसके महत्त्वपूर्ण होने का अहसास करा देता है।
अभी पिछले दिनों मेरे साथ एक घटना घटी। उसी घटना और उस अनजान व्यक्ति ने ही मुझे प्रेरित किया कि आज मैं इस विषय पर ब्लॉग लिखूँ। संभव है कि किसी को यह घटना बड़ी साधारण लगे और उसे लगे कि इसमें कोई विशेष बात नहीं। मेरा नज़रिया भिन्न हो सकता है।
यह बात एक रात की है। मैं अपने बेटे के साथ कहीं जा रही थी। जब
हम सड़क पार कर रहे थे तो मैंने देखा कि कुछ ग्रामीण व्यक्ति, जिनमें
कुछ पुरुष व कुछ स्त्रियाँ थी, सड़क के एक ओर खड़े थे। इन व्यक्तियों में कुछ यौवनावस्था के थे तो कुछ वृद्धावस्था के। इन सब व्यक्तियों को एक 35 वर्षीय युवक संभाल रहा था। कहने का तात्पर्य यह है कि वह युवक ही उन्हें शहर की भीड़-भाड़ से आगाह कर रहा था और ट्रैफिक नियम समझा रहा था। वे सभी लोग शायद किसी बस या अन्य वाहन का इंतज़ार कर रहे थे ताकि अपने गंतव्य तक पहुँच सकें। सड़क पर उस दिन ट्रैफिक कुछ ज़्यादा ही था, इस कारण हमें भी कुछ क्षणों के लिए रुकना पड़ा। तभी अचानक मैंने देखा कि वह युवक जल्दी ही निकट खड़े आइसक्रीमवाले से कुछ आइसक्रीम लाया और अपने सभी बंधुओं-रिश्तेदारों को देने लगा। उसके वे सभी रिश्तेदार उसे न-न कहते हुए आइसक्रीम लेने लगे।शायद उन्हें अपने जीवन में पहली बार आइसक्रीम खाने को नसीब हो रही थी। उनका ज़बान से मना करना और आँखों में चमक और चेहरे पर मुस्कान लिए आइसक्रीम हाथ में पकड़ना मुझे सिखा गया कि जीवन में दुसरों की खुशी कितने मायने रखती है। वह युवक जो आइसक्रीम लाया था, वह बहुत महँगी न होकर अत्यंत सस्ती थी किंतु केवल धन की दृष्टि से। मानवीय संवेदनाओं व भावनाओं को संतुष्टि प्रदान करने की दृष्टि से वह आइसक्रीम अमूल्य माध्यम साबित हुई क्योंकि आइसक्रीम को देखते ही उन ग्रामीणों के चेहरे खिल उठे और उनकी आँखों की चमक स्पष्ट रूप से इस बात को सिद्ध कर रही थी कि वे उस आइसक्रीम का स्वाद चखना चाहते हैं और उन्हें इस बात पर भी गर्व हो रहा था कि वह युवक उन्हें आइसक्रीम से सम्मानित कर रहा है।उस य़ुवक ने पहले उन सभी से आइसक्रीम के ऊपर का कागज़ उतरवाया और उनसे खाने को कहा, इतने में उसकी अपनी आइसक्रीम भी पिघलने लगी किंतु उसे इसकी परवाह न था क्योंकि अपने बंधुओं-रिश्तेदारों के चेहरे पर खुशी के भाव देखकर ही वह तृप्त हो रहा था और खुश हो-होकर हँसते हुए उन्हें उनकी पिघलती आइसक्रीम का जल्दी-जल्दी रस लेने के लिए निर्देश दे रहा था। वे सब भी हँसते-हँसते आइसक्रीम का रस ले रहे थे। कहने को तो यह किस्सा कुछ भी नहीं किंतु इसी के माध्यम से सभी ने कितना आनंद लिया और जीवन को वास्तव में भरपूर जिया। निश्चय ही यही जिंदगी है। दूसरों को छोटी-छोटी खुशियाँ दो और उनके साथ-साथ खुद भी संतुष्ट होने का आनंद लो।

एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........


Thursday, 2 June 2016

आखिर सुंदरता है क्या ?

आम तौर पर लोग कहते हैं वह बहुत सुंदर है, कितनी प्यारी है ना । फिर जब कोई प्रश्न करता है कि अच्छा उसकी सुंदरता का राज़ क्या है? तो कहा जाता है कि उसका रंग बहुत गोरा है या उसकी आँखें बहुत बड़ी-बड़ी हैं या उसके बाल कितने लंबे और काले हैं या हँसते हुए उसके
गालों में गड्ढे पड़ते हैं या उसकी मुस्कुराहट बड़ी प्यारी है आदि....।
अक्सर यही होता है, हम लोग किसी के शरीर की खूबसूरती को ही सुंदरता का मापदंड समझकर अपनी निर्णय सुना देते हैं जबकि ऐसी
सोच क्षणिक होती है क्योंकि वास्तव में व्यक्ति का मन भी देखना चाहिए, सिर्फ तन नहीं।
मन की सुंदरता महत्त्वपूर्ण है क्योंकि –
·       तन की खूबसूरती बाह्य होती है जबकि मन की सुंदरता आंतरिक।
·       तन की खूबसूरती तो आयु-वृद्धि के साथ क्षीण होने लगती है किंतु मन की खूबसूरती आयु-वृद्धि के साथ क्षीण नहीं होती।
·       तन की खूबसूरती को निखारने के लिए अनेक प्रकार की प्रसाधन सामग्री का उपयोग किया जाता है जबकि मन की खूबसूरती को निखारने के लिए व्यक्ति को अपने मन को उदार बनाने के लिए खुद को मिटाकर फिर गढ़ना पड़ता है।
·       तन की खूबसूरती सभी को सुलभ होती है किंतु मन की खूबसूरती
किसी विरले को ही सुलभ हो पाती है।(कहने का भाव यह है कि   तन की सुंदरता के दर्शन किसी की भी नज़रें कर सकती हैं किंतु मन की सुंदरता मात्र उसी को नज़र आती है जिसका हृदय पवित्र और नेक हो )
·       तन की खूबसूरती मृग-मिरीचिका के सदृश है जबकि मन की खूबसूरती कुबेर के कोष के समान है।(कहने का भाव यह है कि
यह ज़रूरी नहीं कि जिसका तन सुंदर हो उसका मन भी पवित्र और शुद्ध हो, किंतु जिस व्यक्ति का मन शुद्ध और पावन है उसका
हर कृत्य दूसरों के लिए प्रेरणादायी व परोपकारी होगा।)
·       तन का खूबसूरती के लिए आप जैसे हैं, वैसे रहकर ही आप उसके
दर्शन कर सकते हैं किंतु मन की खूबसूरती के दर्शन करने के लिए आपको अपने हृदय को पावन, शुद्ध और नेक बनाना होगा।
·       तन की खूबसूरती से आप कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के दिलों को जीत सकते हैं किंतु मन की खूबसूरती से आप पूरी दुनिया जीत
सकते हैं।
·       तन की खूबसूरती दूसरों के दिलों में ईर्ष्या उत्पन्न कर सकती है जबकि मन की खूबसूरती ईर्ष्या को समाप्त करने का माध्यम बन सकती है।
·       तन की खूबसूरती अहंकारजनित हो सकती है जबकि मन की खूबसूरती अहंकाररहित ही होगी।
·       तन की खूबसूरती का स्वामी कल्पनाओं में, माया-जाल में जीता है जबकि मन की खूबसूरती का स्वामी यथार्थ में जीता हुआ आदर्श की स्थापना करता है।
·       तन की खूबसूरती जहाँ ईश्वर की देन हैं वहाँ मन की खूबसूरती ईश्वर का अमूल्य वरदान है।
·       तन की खूबसूरती से लोगों को निकट बुलाया जा सकता है किंतु उनका मन नहीं जीता जा सकता। मन की सुंदरता से लोगों को निकट तो नहीं बुलाया जा सकता किंतु उनका मन अवश्य जीता जा सकता है।
अतः तन व मन दोनों की सुंदरता मायने रखती है, दोनों का महत्त्व है। यदि तन सुंदर है तो अच्छा है किंतु यदि मन भी सुंदर है तो सोने पर सुहागा है।
मैंने इस विषय पर ब्लॉग इसलिए लिखा क्योंकि आजकल लोग अपने तन की सुंदरता को बहुत महत्त्व देते हैं तथा मन की सुंदरता को नकार देते हैं। निश्चय ही दोनों को निखारें, तभी जीवन
की सार्थकता है।

 एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........


Thursday, 28 April 2016

आपकी प्रशंसा तब होगी जब .......

यदि आप वास्तव में अपना जीवन महकती हुई बगिया के समान
बनाना चाहते हैं, यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी प्रशंसा करने में कंजूसी न बरतें, आपको दिल खोलकर प्यार व सम्मान मिले, लोग आपको अपना आदर्श मानें, आपसे सलाह लें, आपका अनुकरण करें, आपकी पीठ पीछे भी आपकी सराहना करें तो आप निश्चय ही ऐसा करें-
1-अपनी सोच को विस्तार दें। लोगों में अच्छाई ढूँढें,कमियाँ नहीं।
2-घमंड लेशमात्र भी न करें। अपने भीतर गर्व का अनुभव करें तथा
हर कठिन परिस्थिति में अपने व्यक्तित्व की गरिमा बनाए रखें।
3-उदार हृदय बनें ।अपने परिजनों, सहयोगियों तथा रिश्तेदारों की
सफलता पर दिल खोलकर प्रशंसा करें।
4-यह हमेशा याद रखें कि आप आम लोगों जैसे नहीं। अपनी अलग पहचान बनाने हेतु आपको श्रम करना होगा। आरंभ में आपको लोगों से वैसा व्यवहार नहीं मिलेगा जैसा आप उनके साथ करेंगे क्योंकि लोगों को उसकी आदत ही नहीं होती। आपको ही उनके आगे चलकर राह दिखानी होगी।अतः शुरू में आपको धैर्य से काम लेना होगा।
5-अपने भीतर छिपी ईर्ष्या, द्वेष जैसी दुर्भावनाओं का स्वयं ही
गला घोंट दें क्योंकि वे आपकी तरक्की के मार्ग में सबसे बड़ी   
रुकावट है। जब ऐसे बुरे भाव उत्पन्न हों, उस स्थान से हट जाएँ व कोई अच्छी पुस्तक पढ़ें या कोई अच्छा कार्य करें जिससे आपका ध्यान सन्मार्ग की ओर जाए।
6-जब भी भय की भावना का उदय हो, किसी एकांत स्थल पर
जाएँ, खुद से प्रश्न करें व अपने भीतर ईश्वरत्व की भावना का
अनुभव करें। यकीन कीजिए कि आपको एकदम सही उत्तर
मिलेगा और आपका भय न जाने कहाँ गायब हो चुका होगा।
7-दूसरों के कार्यों, सफलताओं व उन्नति पर उनकी तारीफ करें,
उन्हें बधाई दें। ये न सोचें कि मेरे द्वारा की गई प्रशंसा से
इसके आगे बढ़ने का मार्ग और प्रशस्त होगा। पहल आपको
करनी होगी, धीरे-धीरे वह व्यक्ति भी आपका कायल हो जाएगा।  


 इस प्रकार उपर्युक्त बातों को अपने जीवन में धारण करने से आपका  जीवन महक उठेगा ठीक वैसे ही जैसे फूलों की बगिया। लेकिन इसमें  कुछ वक्त तो ज़रूर लगेगा। जैसे बगिया में फूल खिलाने के लिए  माली को पहले क्यारी बनाकर उसे तैयार करके उसमें बीजारोपण  करके या फूलों की पौध लगाकर कुछ समय तक  उसकी देखभाल व  रख-रखाव करना पड़ता है फिर कहीं जाकर वे पौधे पुष्पित होते हैं व  सारे गुलशन को महकाते हैं। उसी प्रकार आपको भी माली के समान  अपने प्रयासों को जारी रखना होगा, आपको लोगों से वैसा प्रत्युत्तर  आरंभ में बिल्कुल नहीं मिलेगा  क्योंकि आम लोगों को भी आपकी  सोच को अपनाने के लिए कुछ समय तो लगेगा ही और इसमें उनका  कोई कसूर नहीं है। अतः  आपको धैर्य का परिचय देते हुए खुद को  और ऊँचाइयों तक ले जाना  होगा। इस हेतु यदि मैं आपको लेशमात्र  भी सहयोग दे सकी तो निश्चय ही मैं स्वयं को धन्य मानूँगी।
                     
 एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........


Friday, 22 April 2016

मेरी प्रशंसा क्यों नहीं होती ?

अक्सर देखा गया है कि लोग किसी की कद-काठी, नैन-नक्श की प्रशंसा तो खूब करते हैं किंतु किसी सज्जन के परोपकार की बात या तो करते ही नहीं या बहुत कम करते हैं। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि...
1-    हमारी सोच ही तुच्छ है जो हमें दूसरे की अच्छाई दिखाई ही नहीं देती।
2-    इसका यह भी कारण हो सकता है कि हमारे अंदर घमंड की भावना है और हमारी यह भावना हमें दूसरों से ऊपर ही देखने का दंभ भरना चाहती है।
3-    हमारे हृदय इतना विशाल नहीं कि जिसमें हम दूसरों को आगे बढ़ता हुआ देख सकें।
4-    हम आम लोगों में से ही एक हैं और ऐसे ही रहना चाहते हैं।
5-    हमारे अंदर ईर्ष्या व द्वेष की भावना है जो हमें दूसरों के सुकृत्यों की प्रशंसा करने से रोकती है।
6-    हमारे मन के भीतर चोर के समान छिपा बैठा भय भी हमें कमज़ोर बनाता है। यह भय हमें अंदर ही अंदर भयभीत कर देता है।
7-     हम यह सोचकर प्रशंसा नहीं करते कि कहीं हमारे प्रशंसा करने से अमुक व्यक्ति और अधिक प्रेरित होकर और अच्छा कार्य न कर ले और भी अधिक प्रशंसा का पात्र न बन जाए और ऐसा होते हुए हम संकार्णता, भय, ईर्ष्या व दंभ आदि से फूले हुए कैसे देख सकते हैं। हमें तो खुद को ही वरीयता देते हुए सर्वश्रेष्ठ साबित करना है।

क्या हमने कभी सोचा है कि ऐसी सोच हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगी? क्या ऐसी तुच्छ सोच से हमारे व्यक्तित्व का विकास होगा?  क्या हम अपने सुकर्मों द्वारा समाज को दिशा दे सकेंगे?  क्या हम किसी की प्रशंसा का पात्र बनने की क्षमता जुटा पाएँगे ?क्या हम दर्पण के समक्ष अपने प्रतिबिंब के प्रश्नों के सही-सही उत्तर दे सकेंगे। नहीं, कदापि नहीं, ऐसा कभी नहीं हो पाएगा क्योंकि जब हमने किसी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की ही नहीं तो हमें मिलेगी भी कहाँ से।

    इस संबंध में सरल-सा नियम है कि एक हाथ दे तो दूसरे हाथ ले।
    यह साधारण-सा नियम हममें से ज़्यादातर लोग आजीवन समझ
    ही नहीं पाते और अपना जीवन व्यर्थ ही गवाँ देते हैं।क्या आप वास्तव     में अपना जीवन बेहतर बनाना चाहते हैं? क्या आप चाहते हैं कि लोग     आपकी प्रशंसा करते हुए फूले न समाएँक्या आप निश्चित रूप से यह     चाहते हैं कि लोग आपकी तारीफों के पुल बाँधें?

    यह संभव है, कैसे?
    आपके सवालों के जवाब लेकर जल्दी ही आपकी खिदमत में हाज़िर
    होऊँगी अपने अगले ब्लॉग में ......


एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........

Sunday, 17 April 2016

संघर्ष ही सफलता की आधारशिला है...

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सुख-दुख आते हैं। जीवन में अनेक अवसर ऐसे
आते हैं जो मनुष्य को संघर्ष के लिए उद्यत करते हैं। ऐसे अवसर अक्सर अचानक ही आते हैं, अधिकतर स्थितियों में व्यक्ति ने कोई योजना भी नहीं बनाई होती। उसे अपनी त्वरित विचार-शक्ति का उपयोग कर संघर्ष पर विजय पाने का सार्थक प्रयास करना होता है। कुछ लोग ऐसी स्थिति से घबरा जाते हैं और धैर्य खोने लगते हैं जिसके परिणामस्वरूप उन्हें मनचाहा फल प्राप्त नहीं होता और वे अपनी नाकामयाबी के लिए स्थितियों को दोषी करार दे देते हैं जो अनुचित है।किंतु इसके विपरीत कुछ लोग संघर्ष को चुनौती समझकर स्वीकार करते हैं और धैर्य व स्थिरता से समस्या का निराकरण करने के उपायों पर वैचारिक-मंथन करने लगते हैं और आवश्यकतानुसार कार्य करते हैं। ऐसे लोग ही जीवन में उन्नति करते हैं तथा जीवन को नई दिशा देते हैं।
दरअसल संघर्ष के क्षण ही सफलता की नींव होते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे
रहस्य का भेदन करने से ही सत्य प्रकट होता है।अतः हमें चाहिए कि हम
संघर्ष के पलों में न तो घबराएँ, न ही किसी अन्य पर दोषारोपण करें बल्कि
अपने चरित्र में दृढ़ता व धैर्य का परिचय देते हुए व अपनी विवेक-शक्ति का सदुपयोग करते हुए चुनौती का सामना करें । तब हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी।अतः जब भी संघर्ष की स्थिति आए तो उदास या दुखी न हो, हमेशा ये सोचें कि आपकी उन्नति का नय़ा द्वार खुलने की प्रतीक्षा में है।

एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........


Saturday, 16 April 2016

आपकी आत्मछवि ऐसी हो.......

जिस प्रकार बीज की श्रेणी ही उसके फल की गुणवत्ता निर्धारित करती है,उसी प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व भी उसकी आत्मछवि द्वारा निर्धारित होता है। यदि उत्तम बीज है तो निश्चय ही उसका फल भी उत्तम होगा और इसके विपरीत यदि बीज सड़ा हुआ या निम्न स्तर का है तो उसका फल या तो उगेगा ही नहीं या फिर निम्न स्तर का होगा। यही बात हम सब पर भी लागू होती है। यदि हमारी आत्मछवि श्रेष्ठ है अर्थात हम खुद की नज़रों में श्रेष्ठ हैं,काबिल हैं तो निश्चय ही हमारे व्यक्तित्व का विकास उत्तरोत्तर होता जाएगा। इस संबंध में एक बात स्पष्ट करना जरूरी है, वो यह है कि खुद को आँकने में घमंड का कोई स्थान न हो। उसमें गर्व तथा ईमानदारी हो, घमंड तथा बेईमानी नहीं। स्वयं का आँकलन करते समय यह बात अवश्य याद रखें कि हम दो लोगों से कभी बेईमानी नहीं कर सकते- अपने आप से व ईश्वर से। यदि हम अपना आँकलन सही ढंग से नहीं करते तो उसमें किसी अन्य की नहीं बल्कि स्वयं हमारी ही हानि है। हमारी प्रतिभा संकीर्णता में ही दबकर
दम तोड़ देगी और हमारा जीवन नारकीय हो जाएगा और ऐसी जिंदगी हम कदापि नहीं चाहते। तो फिर क्यों न हम अपनी आत्मछवि को बेहतर बनाने का प्रयास आरंभ करें जिससे हमारा जीवन आनंद व संतुष्टि से आप्लावित हो जाए –
1.    हमेशा मुस्कुराते रहें। जब जीवन में संघर्ष के क्षण हों तब भी स्थिरता
बनाए रखें, विचलित न हों।
2.    ईश्वर को हमेशा याद रखें। अपनी कामयाबी का सारा श्रेय खुद को न दें।
3.    अपने चरित्र में विनम्रता लाएँ।
4.    घमंड जैसे घुन से बचें अन्यथा वह आपको अंदर ही अंदर खोखला कर
देगा।
5.    लोगों पर नुक्ताचीनी न करें, व्यंग्य-बाण कदापि न छोड़े क्योंकि इससे आपकी आत्मछवि पर दुष्प्रभाव पड़ेगा।
6.    भावनाओं में बहकर कार्य न करें। हमेशा अपने मस्तिष्क के विचारों को
प्राथमिकता दें।
7.    लोगों की कमियों पर फोकस न करें बल्कि उनकी अच्छाइयों पर फोकस करें।
8.    हमेशा याद रखें कि बेहतर व सकारात्मक सोच मात्र कुछ ही लोगों की होगी, सभी की बिल्कुल नहीं।
9.    आम लोगों की सोच (जो बहुधा नकारात्मक ही होती है ) देखकर खुद
अपनी सोच को संदेहात्मक दृष्टि से न देखें।  
एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........

Wednesday, 6 April 2016

कूटनीति छोड़ो : मानव-नीति अपनाओ


प्राचीनकाल में कूटनीति का अर्थ कार्य-व्यापार में वाक्-चातुर्य, छल-प्रपंच व
धोखा-धड़ी  से लगाया जाता था परंतु आजकल डिप्लोमेसी के लिए हिन्दी में कूटनीति के स्थान पर राजनय शब्द का प्रयोग होने लगा है।महान कूटनीति़ज्ञ चाणक्य ने कूटनीति के चार सिद्धांतों- साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन किया है । किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है। 
कहने का अभिप्राय यह है कि साम अर्थात समझा-बुझाकर कार्य करवाना सर्वोत्तम है ।तभी तो चाणक्य ने भी इसका समर्थन किया है ।
यदि हम आज के परिप्रेक्ष्य में इस पर विचार करें तो निश्चित रूप से हम पाएँगे कि नैतिक-मूल्यों पर आधारित समझाने-बुझाने से कार्य में तो सफलता मिलती ही है, साथ ही व्यक्ति का चारित्रिक विकास तथा उत्थान भी होता है । हमारा सहयोगी भी दिल से हमारी बात मानता है और हमें सम्मान भी देता है ।जिस समाज या संगठन में इस नीति को प्राथमिकता दी जाती है, वह समाज या संगठन सफलता की सीढ़ियाँ जल्दी व अधिक तय करता है।
ये बड़े खेद की बात है कि आधुनिकता के इस दौर में लोग शार्ट-कट अपनाने के चक्कर में व निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर अन्य सिद्धांतों-दाम, दंड और भेद को अपनाते हुए कार्य़ करना चाहते हैं, जिससे कार्य-पूर्ति में तो जटिलता आती ही है साथ ही आपसी बैर-द्वेष, वैमनस्य की भावना भी पनपती है । व्यक्ति का चारित्रिक पतन भी होता है और समाज भी अवनति के गर्त में चला जाता है ।
अतः यदि हम अपना, अपने परिवार और समाज का हित चाहते हैं तो हमें कूटनीति को छोड़ना होगा और मानव-नीति को अपनाना होगा ।

एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........







Friday, 11 March 2016

हँसो-हँसाओ, जीवन में सुख पाओ

हँसी मानव की जन्मजात प्रवृत्ति है। यह ईश्वर की ऐसी देन है जो सभी मनुष्यों को प्राप्त है । अपने जन्म के पहले सप्ताह में ही शिशु मुस्कुराने
व हँसने लगता है और कुछ ही महीनों में ज़ो-ज़ोर से किलकारी मारकर हँसता है । प्राय: देखा गया है कि मनुष्य की जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे उसके जीवन से हँसी दूर होने लगती है । यह स्थिति कदापि उचित नहीं है क्योंकि हमारी हँसी वह जीवनदायिनी शक्ति है जो हमें शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रखती है । इस संबंध में कुछ तथ्य इस प्रकार हैं –

·       हँसी हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करती है ।
·       हँसी हमें चिंता व तनाव से मुक्त करती है ।
·       हँसी के दौरान मस्तिष्क से एंडोरफिन का स्राव होता है जो हमारे शरीर में अच्छे रसायन का निर्माण करके हमें अच्छा अनुभव कराता है, हम दुख से मुक्त हो जाते हैं ।
·       ज़ोरदार हँसी से हमारी माँसपेशियाँ 45 मिनट तक तनावमुक्त रह सकती हैं ।
·       हँसी से हृदय में रक्त-संचार बहुत अच्छी तरह से होता है जो हृदय के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है ।
·       हँसी से दुख, दर्द, चिंता, तनाव व अवसाद के क्षण दूर होते हैं ।
·       हँसी हमें प्रसन्नचित्त, ऊर्जावान तथा उत्साहित बनाती है ।

इनके अतिरिक्त जब व्यक्ति अपने मित्रों, परिचितों, रिश्तेदारों या
साथियों के साथ हँसी-मज़ाक करता है तो सामाजिक रूप से भी उसे कई तरह से लाभ होता है, जैसे – 

·       उसकी समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती है ।
·       लोग उसकी ओर आकृष्ट होकर उसकी मिलनसार व खुशनुमा रहने की सराहना करते हैं ।
·       उस व्यक्ति के कार्य का स्तर बढ़ जाता है ।
·       लोगों के साथ उसके संबंध मधुर व स्नेहपूर्ण होते हैं ।
·       लोग उसे अपना आदर्श या लीडर मानकर उसके साथ काम करना चाहते हैं या उसके सान्निध्य में रहना चाहते हैं ।


अत: अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए हँसी-मज़ाक को जीवन
का अभिन्न अंग बनाने में ही समझदारी है । इस हेतु कुछ सुझाव इस
प्रकार हैं -
·       अपने मित्रों, परिवारजनों, परिचितों के साथ हँसे-खिलखिलाएँ ।
·       अपने व्यस्त जीवन में भी कुछ समय हँसी-मज़ाक अवश्य करें ।
·       शिशुओं और छोटे बच्चों के साथ बातें करें व खेलें।
·       अपने पालतू पशु के साथ खेलें व उसके साथ समय बिताएँ ।
·       अपने चेहरे पर सदा मुस्कान बनाए रखें ।
·       चुटकुले सुनें व सुनाएँ ।
·       हास्य से भरपूर कहानी, कविता आदि लेख पढ़ें।
·       ऐसे लोगों का संग करें जो खुशदिल हों व सदा मुस्कुराते रहते हों ।
·       अपने प्रिय मित्र या साथी के साथ प्रकृति की सुंदरता का आनंद लें ताकि माहौल खुशनुमा बने ।

यदि आप उपर्युक्त बातों पर गौर करके उन्हें अपने जीवन में लागू करेंगे तो निश्चय ही चिंतामुक्त रहकर प्रसन्नचित्त तो रहेंगे ही, साथ ही साथ आपके
अपने परिचितों, मित्रों व परिवारजनों से रिश्ते भी अधिक घनिष्ठ, मधुर व प्रेमपूर्ण हो जाएँगे । इसके अतिरिक्त आपकी कार्यक्षमता में भी वृद्धि होगी ।
आपका आत्मविश्वास सफलता की बुलंदियों को छूने में सार्थक सिद्ध होगा ।

एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........