भावनाएँ घोड़े के
समान होती हैं । जैसे एक घुड़सवार में घोड़े को अपने नियंत्रण में करने की पूरी
क्षमता होती है, वैसे ही मनुष्य में अपनी भावनाओं को नियंत्रण में करने की
ईश्वर-प्रदत्त क्षमता है । जिस प्रकार
एक घुड़सवार घोड़े
को नियंत्रण में तभी कर सकता है जब उसने
इसका
प्रशिक्षण लिया हो
या इस विषय में जान प्राप्त किया हो , उसी प्रकार
भावनाओं को नियंत्रण
में वही व्यक्ति कर सकता है जिसने इसका ज्ञान
प्राप्त किया हो ।
वही व्यक्ति यह कर सकता है जो या तो योगा करता हो
या अपने भीतर
ईश्वरीय सत्ता के दर्शन करता हो या ये बात भलीभाँति जानता और महसूस करता हो कि
सकारात्मक सोच उन्नति का द्वार है ।
जो व्यक्ति दुर्भावनाओं
के वशीभूत होकर रहता है, वह यहाँ-वहाँ निंदा ही
करता रहता है - कभी
परिस्थितियों की, कभी समय की तो कभी अपने संपर्क में आने वाले लोगों की । ऐसा करने
में उसे रसानुभूति होती है और
वो आनंद पाता है ।
वह इस बात से अनजान ही रहता है कि ऐसा करके
वह क्षणिक आनंद ही
प्राप्त कर रहा है, चिरस्थायी नहीं । उसे ये भी नहीं मालूम कि ये क्षणिक आनंद उसे
जीवन में नकारात्मक बनाता जा रहा है
और वह खुद ही अपनी
खुशियों और सफलताओं के द्वार बंद कर रहा है
तथा दुखों, संकटों व
असफलताओं को निमंत्रण दे रहा है ।
इस प्रकार जो
व्यक्ति किसी की निंदा करता है वह खुद अपना शत्रु है । व्यक्ति निंदा तभी करता है
जब वह किसी के प्रति ईर्ष्या या वैर-द्वेष रखता है और यह तभी होता है जब व्यक्ति
भीतरी या आत्मिक रूप से दुर्बल हो या हीन भावना का शिकार हो ।
अतः जीवन में सफलता
पाने के लिए भावनाओं रूपी घोड़े पर एक घुड़सवार
की भाँति बैठकर
बुद्धि यानि ईश्वरीय-सत्ता में दृढ़ आस्था की लगाम से उन्हें अपने नियंत्रण में
कीजिए और जिंदगी रूपी घुड़सवारी का आनंद लीजिए ।
एक नई आशा के साथ
फ़िर मिलेंगे..........
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