Thursday, 28 April 2016

आपकी प्रशंसा तब होगी जब .......

यदि आप वास्तव में अपना जीवन महकती हुई बगिया के समान
बनाना चाहते हैं, यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी प्रशंसा करने में कंजूसी न बरतें, आपको दिल खोलकर प्यार व सम्मान मिले, लोग आपको अपना आदर्श मानें, आपसे सलाह लें, आपका अनुकरण करें, आपकी पीठ पीछे भी आपकी सराहना करें तो आप निश्चय ही ऐसा करें-
1-अपनी सोच को विस्तार दें। लोगों में अच्छाई ढूँढें,कमियाँ नहीं।
2-घमंड लेशमात्र भी न करें। अपने भीतर गर्व का अनुभव करें तथा
हर कठिन परिस्थिति में अपने व्यक्तित्व की गरिमा बनाए रखें।
3-उदार हृदय बनें ।अपने परिजनों, सहयोगियों तथा रिश्तेदारों की
सफलता पर दिल खोलकर प्रशंसा करें।
4-यह हमेशा याद रखें कि आप आम लोगों जैसे नहीं। अपनी अलग पहचान बनाने हेतु आपको श्रम करना होगा। आरंभ में आपको लोगों से वैसा व्यवहार नहीं मिलेगा जैसा आप उनके साथ करेंगे क्योंकि लोगों को उसकी आदत ही नहीं होती। आपको ही उनके आगे चलकर राह दिखानी होगी।अतः शुरू में आपको धैर्य से काम लेना होगा।
5-अपने भीतर छिपी ईर्ष्या, द्वेष जैसी दुर्भावनाओं का स्वयं ही
गला घोंट दें क्योंकि वे आपकी तरक्की के मार्ग में सबसे बड़ी   
रुकावट है। जब ऐसे बुरे भाव उत्पन्न हों, उस स्थान से हट जाएँ व कोई अच्छी पुस्तक पढ़ें या कोई अच्छा कार्य करें जिससे आपका ध्यान सन्मार्ग की ओर जाए।
6-जब भी भय की भावना का उदय हो, किसी एकांत स्थल पर
जाएँ, खुद से प्रश्न करें व अपने भीतर ईश्वरत्व की भावना का
अनुभव करें। यकीन कीजिए कि आपको एकदम सही उत्तर
मिलेगा और आपका भय न जाने कहाँ गायब हो चुका होगा।
7-दूसरों के कार्यों, सफलताओं व उन्नति पर उनकी तारीफ करें,
उन्हें बधाई दें। ये न सोचें कि मेरे द्वारा की गई प्रशंसा से
इसके आगे बढ़ने का मार्ग और प्रशस्त होगा। पहल आपको
करनी होगी, धीरे-धीरे वह व्यक्ति भी आपका कायल हो जाएगा।  


 इस प्रकार उपर्युक्त बातों को अपने जीवन में धारण करने से आपका  जीवन महक उठेगा ठीक वैसे ही जैसे फूलों की बगिया। लेकिन इसमें  कुछ वक्त तो ज़रूर लगेगा। जैसे बगिया में फूल खिलाने के लिए  माली को पहले क्यारी बनाकर उसे तैयार करके उसमें बीजारोपण  करके या फूलों की पौध लगाकर कुछ समय तक  उसकी देखभाल व  रख-रखाव करना पड़ता है फिर कहीं जाकर वे पौधे पुष्पित होते हैं व  सारे गुलशन को महकाते हैं। उसी प्रकार आपको भी माली के समान  अपने प्रयासों को जारी रखना होगा, आपको लोगों से वैसा प्रत्युत्तर  आरंभ में बिल्कुल नहीं मिलेगा  क्योंकि आम लोगों को भी आपकी  सोच को अपनाने के लिए कुछ समय तो लगेगा ही और इसमें उनका  कोई कसूर नहीं है। अतः  आपको धैर्य का परिचय देते हुए खुद को  और ऊँचाइयों तक ले जाना  होगा। इस हेतु यदि मैं आपको लेशमात्र  भी सहयोग दे सकी तो निश्चय ही मैं स्वयं को धन्य मानूँगी।
                     
 एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........


Friday, 22 April 2016

मेरी प्रशंसा क्यों नहीं होती ?

अक्सर देखा गया है कि लोग किसी की कद-काठी, नैन-नक्श की प्रशंसा तो खूब करते हैं किंतु किसी सज्जन के परोपकार की बात या तो करते ही नहीं या बहुत कम करते हैं। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि...
1-    हमारी सोच ही तुच्छ है जो हमें दूसरे की अच्छाई दिखाई ही नहीं देती।
2-    इसका यह भी कारण हो सकता है कि हमारे अंदर घमंड की भावना है और हमारी यह भावना हमें दूसरों से ऊपर ही देखने का दंभ भरना चाहती है।
3-    हमारे हृदय इतना विशाल नहीं कि जिसमें हम दूसरों को आगे बढ़ता हुआ देख सकें।
4-    हम आम लोगों में से ही एक हैं और ऐसे ही रहना चाहते हैं।
5-    हमारे अंदर ईर्ष्या व द्वेष की भावना है जो हमें दूसरों के सुकृत्यों की प्रशंसा करने से रोकती है।
6-    हमारे मन के भीतर चोर के समान छिपा बैठा भय भी हमें कमज़ोर बनाता है। यह भय हमें अंदर ही अंदर भयभीत कर देता है।
7-     हम यह सोचकर प्रशंसा नहीं करते कि कहीं हमारे प्रशंसा करने से अमुक व्यक्ति और अधिक प्रेरित होकर और अच्छा कार्य न कर ले और भी अधिक प्रशंसा का पात्र न बन जाए और ऐसा होते हुए हम संकार्णता, भय, ईर्ष्या व दंभ आदि से फूले हुए कैसे देख सकते हैं। हमें तो खुद को ही वरीयता देते हुए सर्वश्रेष्ठ साबित करना है।

क्या हमने कभी सोचा है कि ऐसी सोच हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगी? क्या ऐसी तुच्छ सोच से हमारे व्यक्तित्व का विकास होगा?  क्या हम अपने सुकर्मों द्वारा समाज को दिशा दे सकेंगे?  क्या हम किसी की प्रशंसा का पात्र बनने की क्षमता जुटा पाएँगे ?क्या हम दर्पण के समक्ष अपने प्रतिबिंब के प्रश्नों के सही-सही उत्तर दे सकेंगे। नहीं, कदापि नहीं, ऐसा कभी नहीं हो पाएगा क्योंकि जब हमने किसी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की ही नहीं तो हमें मिलेगी भी कहाँ से।

    इस संबंध में सरल-सा नियम है कि एक हाथ दे तो दूसरे हाथ ले।
    यह साधारण-सा नियम हममें से ज़्यादातर लोग आजीवन समझ
    ही नहीं पाते और अपना जीवन व्यर्थ ही गवाँ देते हैं।क्या आप वास्तव     में अपना जीवन बेहतर बनाना चाहते हैं? क्या आप चाहते हैं कि लोग     आपकी प्रशंसा करते हुए फूले न समाएँक्या आप निश्चित रूप से यह     चाहते हैं कि लोग आपकी तारीफों के पुल बाँधें?

    यह संभव है, कैसे?
    आपके सवालों के जवाब लेकर जल्दी ही आपकी खिदमत में हाज़िर
    होऊँगी अपने अगले ब्लॉग में ......


एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........

Sunday, 17 April 2016

संघर्ष ही सफलता की आधारशिला है...

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सुख-दुख आते हैं। जीवन में अनेक अवसर ऐसे
आते हैं जो मनुष्य को संघर्ष के लिए उद्यत करते हैं। ऐसे अवसर अक्सर अचानक ही आते हैं, अधिकतर स्थितियों में व्यक्ति ने कोई योजना भी नहीं बनाई होती। उसे अपनी त्वरित विचार-शक्ति का उपयोग कर संघर्ष पर विजय पाने का सार्थक प्रयास करना होता है। कुछ लोग ऐसी स्थिति से घबरा जाते हैं और धैर्य खोने लगते हैं जिसके परिणामस्वरूप उन्हें मनचाहा फल प्राप्त नहीं होता और वे अपनी नाकामयाबी के लिए स्थितियों को दोषी करार दे देते हैं जो अनुचित है।किंतु इसके विपरीत कुछ लोग संघर्ष को चुनौती समझकर स्वीकार करते हैं और धैर्य व स्थिरता से समस्या का निराकरण करने के उपायों पर वैचारिक-मंथन करने लगते हैं और आवश्यकतानुसार कार्य करते हैं। ऐसे लोग ही जीवन में उन्नति करते हैं तथा जीवन को नई दिशा देते हैं।
दरअसल संघर्ष के क्षण ही सफलता की नींव होते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे
रहस्य का भेदन करने से ही सत्य प्रकट होता है।अतः हमें चाहिए कि हम
संघर्ष के पलों में न तो घबराएँ, न ही किसी अन्य पर दोषारोपण करें बल्कि
अपने चरित्र में दृढ़ता व धैर्य का परिचय देते हुए व अपनी विवेक-शक्ति का सदुपयोग करते हुए चुनौती का सामना करें । तब हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी।अतः जब भी संघर्ष की स्थिति आए तो उदास या दुखी न हो, हमेशा ये सोचें कि आपकी उन्नति का नय़ा द्वार खुलने की प्रतीक्षा में है।

एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........


Saturday, 16 April 2016

आपकी आत्मछवि ऐसी हो.......

जिस प्रकार बीज की श्रेणी ही उसके फल की गुणवत्ता निर्धारित करती है,उसी प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व भी उसकी आत्मछवि द्वारा निर्धारित होता है। यदि उत्तम बीज है तो निश्चय ही उसका फल भी उत्तम होगा और इसके विपरीत यदि बीज सड़ा हुआ या निम्न स्तर का है तो उसका फल या तो उगेगा ही नहीं या फिर निम्न स्तर का होगा। यही बात हम सब पर भी लागू होती है। यदि हमारी आत्मछवि श्रेष्ठ है अर्थात हम खुद की नज़रों में श्रेष्ठ हैं,काबिल हैं तो निश्चय ही हमारे व्यक्तित्व का विकास उत्तरोत्तर होता जाएगा। इस संबंध में एक बात स्पष्ट करना जरूरी है, वो यह है कि खुद को आँकने में घमंड का कोई स्थान न हो। उसमें गर्व तथा ईमानदारी हो, घमंड तथा बेईमानी नहीं। स्वयं का आँकलन करते समय यह बात अवश्य याद रखें कि हम दो लोगों से कभी बेईमानी नहीं कर सकते- अपने आप से व ईश्वर से। यदि हम अपना आँकलन सही ढंग से नहीं करते तो उसमें किसी अन्य की नहीं बल्कि स्वयं हमारी ही हानि है। हमारी प्रतिभा संकीर्णता में ही दबकर
दम तोड़ देगी और हमारा जीवन नारकीय हो जाएगा और ऐसी जिंदगी हम कदापि नहीं चाहते। तो फिर क्यों न हम अपनी आत्मछवि को बेहतर बनाने का प्रयास आरंभ करें जिससे हमारा जीवन आनंद व संतुष्टि से आप्लावित हो जाए –
1.    हमेशा मुस्कुराते रहें। जब जीवन में संघर्ष के क्षण हों तब भी स्थिरता
बनाए रखें, विचलित न हों।
2.    ईश्वर को हमेशा याद रखें। अपनी कामयाबी का सारा श्रेय खुद को न दें।
3.    अपने चरित्र में विनम्रता लाएँ।
4.    घमंड जैसे घुन से बचें अन्यथा वह आपको अंदर ही अंदर खोखला कर
देगा।
5.    लोगों पर नुक्ताचीनी न करें, व्यंग्य-बाण कदापि न छोड़े क्योंकि इससे आपकी आत्मछवि पर दुष्प्रभाव पड़ेगा।
6.    भावनाओं में बहकर कार्य न करें। हमेशा अपने मस्तिष्क के विचारों को
प्राथमिकता दें।
7.    लोगों की कमियों पर फोकस न करें बल्कि उनकी अच्छाइयों पर फोकस करें।
8.    हमेशा याद रखें कि बेहतर व सकारात्मक सोच मात्र कुछ ही लोगों की होगी, सभी की बिल्कुल नहीं।
9.    आम लोगों की सोच (जो बहुधा नकारात्मक ही होती है ) देखकर खुद
अपनी सोच को संदेहात्मक दृष्टि से न देखें।  
एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........

Wednesday, 6 April 2016

कूटनीति छोड़ो : मानव-नीति अपनाओ


प्राचीनकाल में कूटनीति का अर्थ कार्य-व्यापार में वाक्-चातुर्य, छल-प्रपंच व
धोखा-धड़ी  से लगाया जाता था परंतु आजकल डिप्लोमेसी के लिए हिन्दी में कूटनीति के स्थान पर राजनय शब्द का प्रयोग होने लगा है।महान कूटनीति़ज्ञ चाणक्य ने कूटनीति के चार सिद्धांतों- साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन किया है । किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है। 
कहने का अभिप्राय यह है कि साम अर्थात समझा-बुझाकर कार्य करवाना सर्वोत्तम है ।तभी तो चाणक्य ने भी इसका समर्थन किया है ।
यदि हम आज के परिप्रेक्ष्य में इस पर विचार करें तो निश्चित रूप से हम पाएँगे कि नैतिक-मूल्यों पर आधारित समझाने-बुझाने से कार्य में तो सफलता मिलती ही है, साथ ही व्यक्ति का चारित्रिक विकास तथा उत्थान भी होता है । हमारा सहयोगी भी दिल से हमारी बात मानता है और हमें सम्मान भी देता है ।जिस समाज या संगठन में इस नीति को प्राथमिकता दी जाती है, वह समाज या संगठन सफलता की सीढ़ियाँ जल्दी व अधिक तय करता है।
ये बड़े खेद की बात है कि आधुनिकता के इस दौर में लोग शार्ट-कट अपनाने के चक्कर में व निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर अन्य सिद्धांतों-दाम, दंड और भेद को अपनाते हुए कार्य़ करना चाहते हैं, जिससे कार्य-पूर्ति में तो जटिलता आती ही है साथ ही आपसी बैर-द्वेष, वैमनस्य की भावना भी पनपती है । व्यक्ति का चारित्रिक पतन भी होता है और समाज भी अवनति के गर्त में चला जाता है ।
अतः यदि हम अपना, अपने परिवार और समाज का हित चाहते हैं तो हमें कूटनीति को छोड़ना होगा और मानव-नीति को अपनाना होगा ।

एक नई आशा के साथ फ़िर मिलेंगे..........