प्रकृति को मानव की
सहचरी कहा गया है क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे की
कल्पना भी नहीं की जा सकती किंतु आधुनिकता के पाश में बँधा आज का इनसान यह भूल गया
है।
हमारे
बड़े-बुज़ुर्गों ने प्रकृति के महत्त्व को पहले ही जान लिया था, तभी तो उन्होंने प्रकृति
के उपादानों को धार्मिक मान्यताओं व संस्कारों से जोड़ा। बरगद, तुलसी, पीपल आदि
वृक्षों, गंगा,यमुना आदि नदियों, गोवर्धन पर्वत की पूजा-अर्चना आदि कार्य धार्मिक
अनुष्ठानों के अंतर्गत ही आते हैं। हमारे पूर्वज दूरदर्शी थे, वे जानते थे कि आने
वाले समय में मनुष्य के लोभी व
स्वार्थी होने के कारण प्रकृति का विनाश होगा, तभी उन्होंने प्रकृति को
धर्म से जोड़ा क्योंकि हम भावनात्मक रूप से धर्म से जितना जुड़े हुए हैं उतना किसी
और चीज़ से नहीं। प्रकृति के निकट सुकून है, शांति है, ताज़गी है, ऊर्जा है,
सकारात्मकता है और सबसे महत्त्वपूर्ण यदि समझने वाला समझ ले तो उसके कण-कण में संदेश
है। इस वजह से भी हमारे पूर्वजों ने प्रकृति का सम्मान किया।
दरअसल प्रकृति का हर
रूप एक पहेली है जिसे समझने-बूझने के लिए भावनाओं से सराबोर
मनोमस्तिष्क चाहिए।
प्रकृति के निकट
इसलिए जाएँ क्योंकि :-
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· खुली हवा में गहरी साँसें लें और छोड़ें । यदि
बगीचे में करें तो और भी बेहतर है । ऐसा करने से आप सूर्य, हवा और वृक्षों की ऊर्जा के दायरे में आकर स्वस्थ व तरोताज़ा महसूस
करेंगे। वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है।
· आप रोज़ एक ही प्रकार का न तो भोजन खा सकते हैं
और न ही एक ही प्रकार और रंग के कपड़े पहन सकते हैं क्योंकि यह आपको नीरस लगता है
। ठीक उसी प्रकार आपका मनोमस्तिष्क भी प्रकृति के विभिन्न रंगों, उसके विभिन्न
रूपों को देखकर आनंद का अनुभव करना चाहता है ।
· प्रकृति के उपादानों में निहित सकारात्मक शक्ति
आपकी नकारात्मकता को समाप्त करने की क्षमता रखती है। जब कभी आप उदास, परेशान या दुखी हों तो प्रकृति के निकट
जाकर खुद अनुभव करें और देखें इसका कमाल।
एक नई आशा के साथ फिर मिलेंगे.....